एक ओंकार सतनाम –(गुरू नानक) प्रवचन-1
Posted on अक्टूबर 24, 2014 by sw anand prashad
एक ओंकार सतनाम—(नानक)
ओशो
नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया। गीतों से
पटा है मार्ग नानक का। इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है। पहली बात समझ लेनी जरूरी
है कि नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया। नानक ने सिर्फ गाया। और गा कर ही पा लिया। लेकिन
गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।
अहंकार तुम्हारी आंख
में पड़ी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही
था, तुम मौजूद न थे।
नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो
गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
नानक लौटे; परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है,
एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक
शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।
अब हम जपुजी को
समझने की कोशिश करें।
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ
निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी
सैभं गुरु प्रसादि।।
ओशो
आदि सचु जुगादि सचु—(प्रवचन—पहला)
मंत्र:
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ
निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी
सैभं गुरु प्रसादि।।
जपु:
आदि सचु जुगादि सचु।
है भी सचु नानक होसी
भी सचु।।
पोड़ी: 1
सोचे सोचि न होवई जे
सोची लख बार।
चुपै चुप न होवई जे
लाइ रहा लिवतार।
भुखिया भुख न उतरी
जे बंना पुरीआं भार।
सहस सियाणपा लख होहि,
त इक न चले नालि।
किव सचियारा होइए,
किव कूड़ै तुटै पालि।
हुकमि रजाई चलणा ‘नानक’ लिखिआ नालि।
एक अंधेरी रात।
भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके।
गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।
रात देर तक वे गाते
रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के
कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की
मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।
नानक चुप हुए। और
तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू।
नानक ने कहा,
सुनो मां! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ।
अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊं? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक यह गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा। और इसका प्यारा तो बहुत
पास है, मेरा प्यारा बहुत
दूर है। जन्मों-जन्मों गाता रहूं तो ही उस तक पहुंच सकूंगा। रात और दिन का हिसाब
नहीं रखा जा सकता है। नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।
नानक ने परमात्मा को
गा-गा कर पाया। गीतों से पटा है मार्ग नानक का। इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है।
पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया। नानक ने सिर्फ गाया। और गा कर
ही पा लिया। लेकिन गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया,
गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।
जब भी कोई समग्र
प्राण से किसी भी कृत्य को करता है, वही कृत्य मार्ग बन जाता है। तुम ध्यान भी करो अधूरा-अधूरा, तो भी न पहुंच पाओगे। तुम पूरा-पूरा, पूरे हृदय से, तुम्हारी सारी समग्रता से, एक गीत भी गा दो, एक नृत्य भी कर लो, तो भी तुम पहुंच जाओगे। क्या तुम करते हो,
यह सवाल नहीं। पूरी समग्रता से करते हो या
अधूरे-अधूरे, यही सवाल है।
परमात्मा के रास्ते
पर नानक के लिए गीत और फूल ही बिछे हैं। इसलिए उन्होंने जो भी कहा है, गा कर कहा है। बहुत मधुर है उनका मार्ग; रससिक्त! कल हम कबीर की बात कर रहे थे:
सुरत कलारी भई मतवारी,
मधवा पी गई बिन तौले।
नानक वही हैं,
जो मधवा को बिना तौले पी गए हैं। फिर जीवन
भर गाते रहे। ये गीत साधारण गायक के नहीं हैं। ये गीत उसके हैं जिसने जाना है। इन
गीतों में सत्य की भनक, इन गीतों में
परमात्मा का प्रतिबिंब है।
दूसरी बात, जपुजी के जन्म के संबंध में। जिस भादों की रात की
मैंने बात कही–तब नानक की उम्र रही
होगी कोई सोलह-सत्रह। जपुजी का जन्म हुआ तब उनकी उम्र थी, छत्तीस वर्ष, छह माह, पंद्रह दिन। जिस घटना का मैंने उल्लेख किया, उस भादों की रात वे साधक थे और तलाश में थे।
प्यारे की पुकार चल रही थी, पियू-पियू। अभी पपीहा रट लगा रहा था। अभी मिलन न हुआ था।
जपुजी का जब जन्म
हुआ–यह मिलन के बाद उनका
पहला उदघोष है। पपीहा ने पा लिया अपने प्यारे को। पियू-पियू की रटन पूरी हुई। मिलन
हो गया। उस मिलन से जो पहला उदघोष हुआ है, वह जपुजी है। इसलिए नानक की वाणी में जो मूल्य जपुजी का है वह किसी और
बात का नहीं। जपुजी ताजी से ताजी खबर है उस लोक की। वहां से लौट कर उन्होंने जो
पहली बात कही, वह यही है। उस जगत
से इस जगत में आ कर, जो पहले शब्द
निर्मित हुए वही जपुजी है।
उस घटना को भी समझ
लेना है।
नदी के किनारे रात
के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक
मरदाना के साथ वे नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ
कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं? रात ठंडी है, अंधेरी है! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना
पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ
जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए।
दस-पांच मिनट तो
मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गया
कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ने लगा कि कहां
हो? बोलो, आवाज दो! ऐसा उसे लगा कि नदी की लहर-लहर से एक
आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक की कोई खबर नहीं। वह भागा गांव
गया, आधी रात लोगों को
जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई।
नानक को सभी लोग
प्यार करते थे। सभी को नानक में दिखाई पड़ती थी कुछ होने की संभावना। नानक की
मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है! सारा गांव रोने लगा,
भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस
कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला। तीन दिन बीत गए। लोगों
ने मान ही लिया कि नानक को कोई जानवर खा गया। डूब गए, बह गए, किसी खाई-खड्ड में उलझ गए। मान ही लिया कि मर गए। रोना-पीटना हो गया।
घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा।
और तीसरे दिन रात
अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उनका पहला वचन
है। यह घोषणा उन्होंने की।
कहानी ऐसी है–कहता हूं, कहानी। कहानी का मतलब होता है, जो सच भी है, और सच नहीं भी। सच इसलिए है कि वह खबर देती है
सचाई की; और सच इसलिए नहीं है
कि वह कहानी है और प्रतीकों में खबर देती है। और जितनी गहरी बात कहनी हो, उतनी ही प्रतीकों की खोज करनी पड़ती है।
नानक जब तीन दिन के
लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का
उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे,
जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना
था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने उन्हें कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है–परमात्मा से लौट कर।
यह कहानी है। इसके
प्रतीकों को समझ लें। एक, कि जब तक तुम न खो जाओ, जब तक तुम न मर जाओ तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी
में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन तुम नहीं बचने चाहिए। तुम्हारा खो जाना ही उसका होना है। तुम जब तक हो
तभी तक वह न हो पाएगा। तुम ही अड़चन हो। तुम ही दीवाल हो। तो यह जो नदी में खो जाने
की कहानी है–तुम्हें भी खो जाना
पड़ेगा; तुम्हें भी डूब जाना
पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं। इसलिए तो हम, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं। तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी
होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है।
इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को
तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर गए।
जब भी कोई संन्यासी
होता है, घर के लोग समझ लेते
हैं, मर गया। जब भी कोई
उसकी खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते
हैं, खत्म हुआ। क्योंकि
अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी शृंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए
तीन दिन का प्रतीक है। तीन दिन बाद नानक लौट आए। जो भी खोता है वह लौट आता है,
लेकिन नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है
उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन
जा रहा था तब प्यासा था, आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा
में लीन होता है, जाते समय
भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार
संपदा होती है बांटने को। जपुजी पहली भेंट है।
परमात्मा के सामने
प्रकट होना, प्यारे को पा लेना,
इन्हें तुम बिलकुल प्रतीक को, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। क्योंकि कहीं कोई
परमात्मा बैठा हुआ नहीं है, जिसके सामने तुम प्रकट हो जाओगे। लेकिन कहना हो बात, तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं है। जब तुम मिटते
हो तो जो भी आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है;
परमात्मा निराकार शक्ति है।
तुम उसके सामने कैसे
हो सकोगे? जहां तुम देखोगे,
वहीं वह है। जो तुम देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए।
अहंकार तुम्हारी आंख
में पड़ी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही
था, तुम मौजूद न थे।
नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो
गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
नानक लौटे; परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है,
एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक
शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद-वचन हैं।
अब हम जपुजी को
समझने की कोशिश करें।
इक ओंकार सतिनाम
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